Sunday 28 August 2016

समास

सम + आस = समास = संछिप्त
1. दो या दो से अधिक पदों (शब्दों) को मिलाकर एक संछिप्त पद समास बनता है .
            माता -पिता ( माता और पिता )
            हस्तलिखित - ( हस्त ( हाथ ) से लिखित
2. समास करते समय दो या दो से अधिक पदों के मध्य का अंश हटा दिया /लुप्त कर दिया जाता है .
           लाल है जो मिर्च = लालमिर्च
           चार राहों का समूह = चौराहा
3. समास के पदों में वर्ण विकार आ सकता है
           घोड़े पर सवार = घुड़सवार
            सात सौ के समूह वाली = सतसई

1.अव्ययीभाव  समास 

1. अव्यय/उपसर्ग + संज्ञा 
     आ, अति,अनु,प्रति,यथा,यावत,वि,नि,निः, उप , सम,भर, बे, हर, ला , स. 
2. संज्ञा+ अव्यय 
     अनुसार , पूर्वक, अर्थ , उपरांत , उन्मुख , भर .
3. पुन्राव्रतिमुलक
   शब्द+ शब्द (संज्ञा +संज्ञा / विशेषण+विशेषण )         
             घर -घर = प्रत्येक घर                 
             मंद -मंद = अत्यंत मंद 
शब्द +ए + शब्द      ( ए = में/पर )   
             प्रत्येक ....................में/पर 
            कोने -कोने ...............प्रत्येक कोने में 
शब्द+ओ+शब्द 
            हाथोहाथ ..............हाथों ही हाथों में 
अन्य 
प्रति = प्रत्येक /विपरीत/ दूसरा/ बदले में 
प्रतिदिन ..............प्रत्येक दिन                                                          
प्रतिशत ..............प्रत्येक शत 
प्रत्यक्ष ..............अतिथि के सामने / समक्ष / परोक्ष                              
प्रतिध्वनी .............ध्वनी की दूसरी ध्वनी 
प्रतिबिम्ब .............बिम्ब का दूसरा बिन्म                                         
प्रत्युतर .................उत्तर के बदले में उत्तर 
प्रतिकूल ..............कुल के विपरीत 
 = तक /से लेकर /पर्यंत 
आजन्म ...................जन्म से लेकर 
आमरण ....................मरण तक 
आजीवन ................जीवन पर्यंत 
आकंठ ..............कंठ तक 
आपादमस्तक .................पाद से मस्तक तक 
यथा = अनुसार /जैसा 
यथाशक्ति ..............शक्ति के अनुसार 
यथाक्रम ...............क्रम के अनुसार 
याठेस्थ ............ईस्ट के अनुसार 
यथास्थान .............स्थान के अनुसार 
यथोचित ..............उचित के अनुसार 
यथारुचि ...........रूचि के अनुसार 
यथार्थ ..................अर्थ एक अनुसार 
अनु= प्रत्येक / पश्चात् /समीप/ अनुसार 
अनुछन ...........छन के अनुसार 
अनुदिन ...........प्रत्येक दिन 
अनुरूप ...........रूप के अनुसार 
अनुकृति ............कृति के अनुसार 
हर = प्रत्येक 
हरेक ...........प्रत्येक एक                              
हर जगह ..................प्रत्येक जगह 
हरवक्त ..........प्रत्येक वक्त                            
हरमाह ....................प्रत्येक माह 
उप =समीप /पश्चात् / अनुसार / छोटा 
उपमान ..........मान के अनुसार                    
उपवन ............छोटा वन 
उपसर्ग .............समीप सर्ग                          
उपखंड ...........छोटा खंड 
उपदेश .............देश के अनुसार                  
उपस्थिति...........समीप स्थिति 
भर = पूरा 
भरसक ..........शक्ति भर                          
भरमार ..............पूरी मार 
भरपेट .............पेट भर कर                      
भरपूर .................पूरा भर कर 
स = सहित साथ 
सकुशल .........कुशलता के साथ                
 सादर .........आदर के साथ 
सपत्निक ...........पत्नी के साथ                    
सावधान  ............अवधान (मनोयोग) 
2. संज्ञा +अव्यय 
अर्थ = के लिए 
स्वार्थ ..........स्व के लिए                            
हितार्थ .............हित के लिए 
सेवार्थ ...........सेवा के लिए                        
ज्ञानार्थ ............ज्ञान के लिए

2 . तत्पुरुष समास

इस समास में दूसरा पद प्रधान होता है .
(i)तत्पुरुष समास में दूसरा पद (पर पद)
प्रधान होता है अर्थात् विभक्ति का लिंग, वचन
दूसरे पद के अनुसार होता है।
(ii) इसका विग्रह करने पर कत्र्ता व सम्बोधन
की विभक्तियों (ने, हे, ओ,
अरे) के अतिरिक्त
किसी भी कारक की विभक्ति प्रयुक्त होती है तथा विभक्तियों
के अनुसार ही इसके उपभेद होते 
हैं।
राजकन्या  / राजपरिवार 
दो पदों के बिच का करक चिन्ह लुप्त रहता है , विग्रह करने पर पुनह रख दिया जाता है . 
करक चिन्ह - 1 कर्ता- ने , 2 कर्म - को , 3 करण- से, के द्वारा , 4 सम्प्रदान - के लिए , 5 अपादान - से ( अलग होने के अर्थ में ) , 6 सम्बन्ध - का , के , की , 7 अधिकरण - में,पर, 8 संबोधन - हे, अरे, ओ . 
* कर्म तत्पुरुष - इसमें समास पदों में /को / लुप्त रहता है . 
कर्मगत.............कर्म को गत 
जातिगत ..............जाती को गत 
अधिकार प्राप्त ............अधिकार को प्राप्त 
विदेशगमन ..............विदेश को गमन 
शांतिप्रिय.............शांति को प्राप्त 
स्थानापन्न ..........स्थान को आपन्नं 
दिनकर .................दिन को करने वाला 
सेंधमार .................सेंध को मरने वाला 
झखमार .................झक को मरने वाला 
कमरतोड़ ................कमर को तोड़ने वाला 
मुरलीधर ...................मुरली को धरने वाला 
मनोहारी ...................मन को हरने वाला 
कृष्णार्पण = कृष्ण को अर्पण
नेत्र सुखद = नेत्रों को सुखद
वन-गमन = वन को गमन
जेब कतरा = जेब को कतरने वाला
प्राप्तोदक = उदक को प्राप्त
(ख) करण तत्पुरुष (से/के द्वारा)
ईश्वर-प्रदत्त = ईश्वर से प्रदत्त
हस्त-लिखित = हस्त (हाथ) से लिखित
तुलसीकृत = तुलसी द्वारा रचित
दयार्द्र = दया से आर्द्र
रत्न जडि़त = रत्नों से जडि़त
(ग) सम्प्रदान तत्पुरुष (के लिए)
हवन-सामग्री = हवन के लिए सामग्री
विद्यालय = विद्या के लिए आलय
गुरु-दक्षिणा = गुरु के लिए दक्षिणा
बलि-पशु = बलि के लिए पशु
(घ) अपादान तत्पुरुष (से पृथक्)
ऋण-मुक्त = ऋण से मुक्त
पदच्युत = पद से च्युत
मार्ग भ्रष्ट = मार्ग से भ्रष्ट
धर्म-विमुख = धर्म से विमुख
देश-निकाला = देश से निकाला
(च) सम्बन्ध तत्पुरुष (का, के, की)
मन्त्रि-परिषद् = मन्त्रियों की परिषद्
प्रेम-सागर = प्रेम का सागर
राजमाता = राजा की माता
अमचूर =आम का चूर्ण
रामचरित = राम का चरित
(छ) अधिकरण तत्पुरुष (में, पे, पर)
वनवास = वन में वास
जीवदया = जीवों पर दया
ध्यान-मग्न = ध्यान में मग्न
घुड़सवार = घोड़े पर सवार
घृतान्न = घी में पक्का अन्न

कवि पुंगव = कवियों में श्रेष्ठ
3. द्वन्द्व समास
(i)द्वन्द्व समास में दोनों पद प्रधान होते हैं।
(ii) दोनों पद प्रायः एक दूसरे के विलोम होते हैं, सदैव नहीं।
(iii)इसका विग्रह करने पर ‘और’, अथवा ‘या’ का प्रयोग होता है।
माता-पिता = माता और पिता
दाल-रोटी = दाल और रोटी
पाप-पुण्य = पाप या पुण्य/पाप और पुण्य
अन्न-जल = अन्न और जल
जलवायु = जल और वायु
फल-फूल = फल और फूल
भला-बुरा = भला या बुरा
रुपया-पैसा = रुपया और पैसा
अपना-पराया = अपना या पराया
नील-लोहित = नीला और लोहित (लाल)
धर्माधर्म = धर्म या अधर्म
सुरासुर = सुर या असुर/सुर और असुर
शीतोष्ण = शीत या उष्ण
यशापयश = यश या अपयश
शीतातप = शीत या आतप
शस्त्रास्त्र = शस्त्र और अस्त्र
कृष्णार्जुन = कृष्ण और अर्जुन
4. बहुब्रीहि समास
(i)बहुब्रीहि समास में कोई भी पद प्रधान नहीं होता।
(ii) इसमें प्रयुक्त पदों के सामान्य अर्थ की अपेक्षा अन्य अर्थ
की प्रधानता रहती है।
(iii)इसका विग्रह करने पर ‘वाला, है, जो, जिसका, जिसकी, जिसके, वह आदि
आते हैं।
गजानन = गज का आनन है जिसका वह (गणेश)
त्रिनेत्र = तीन नेत्र हैं जिसके वह (शिव)
चतुर्भुज = चार भुजाएँ हैं जिसकी वह (विष्णु)
षडानन = षट् (छः) आनन हैं जिसके वह (कार्तिकेय)
दशानन = दश आनन हैं जिसके वह (रावण)
घनश्याम = घन जैसा श्याम है जो वह (कृष्ण)
पीताम्बर = पीत अम्बर हैं जिसके वह (विष्णु)
चन्द्रचूड़ = चन्द्र चूड़ पर है जिसके वह
गिरिधर = गिरि को धारण करने वाला है जो वह
मुरारि = मुर का अरि है जो वह
आशुतोष = आशु (शीघ्र) प्रसन्न होता है जो वह
नीललोहित = नीला है लहू जिसका वह
वज्रपाणि = वज्र है पाणि में जिसके वह
सुग्रीव = सुन्दर है ग्रीवा जिसकी वह
मधुसूदन = मधु को मारने वाला है जो वह
आजानुबाहु = जानुओं (घुटनों) तक बाहुएँ हैं जिसकी वह
नीलकण्ठ = नीला कण्ठ है जिसका वह
महादेव = देवताओं में महान् है जो वह
मयूरवाहन = मयूर है वाहन जिसका वह
कमलनयन = कमल के समान नयन हैं जिसके वह
कनकटा = कटे हुए कान है जिसके वह
जलज = जल में जन्मने वाला है जो वह (कमल)
वाल्मीकि = वल्मीक से उत्पन्न है जो वह
दिगम्बर = दिशाएँ ही हैं जिसका अम्बर ऐसा वह
कुशाग्रबुद्धि = कुश के अग्रभाग के समान बुद्धि है जिसकी
वह
मन्द बुद्धि = मन्द है बुद्धि जिसकी वह
जितेन्द्रिय = जीत ली हैं इन्द्रियाँ जिसने वह
चन्द्रमुखी = चन्द्रमा के समान मुखवाली है जो वह
अष्टाध्यायी = अष्ट अध्यायों की पुस्तक है जो वह
5. द्विगु समास
(i)द्विगु समास में प्रायः पूर्वपद संख्यावाचक होता है तो कभी-कभी
परपद भी संख्यावाचक
देखा जा सकता है।
(ii) द्विगु समास में प्रयुक्त संख्या किसी समूह का बोध कराती है
अन्य अर्थ का नहीं, जैसा
कि बहुब्रीहि समास में देखा है।
(iii)इसका विग्रह करने पर ‘समूह’ या ‘समाहार’ शब्द प्रयुक्त होता है।
दोराहा = दो राहों का समाहार
पक्षद्वय = दो पक्षों का समूह
सम्पादक द्वय = दो सम्पादकों का समूह
त्रिभुज = तीन भुजाओं का समाहार
त्रिलोक या त्रिलोकी = तीन लोकों का समाहार
त्रिरत्न = तीन रत्नों का समूह
संकलन-त्रय = तीन का समाहार
भुवन-त्रय = तीन भुवनों का समाहार
चैमासा/चतुर्मास = चार मासों का समाहार
चतुर्भुज = चार भुजाओं का समाहार (रेखीय आकृति)
चतुर्वर्ण = चार वर्णों का समाहार
पंचामृत = पाँच अमृतों का समाहार
पं चपात्र = पाँच पात्रों का समाहार
पंचवटी = पाँच वटों का समाहार
षड्भुज = षट् (छः) भुजाओं का समाहार
सप्ताह = सप्त अहों (सात दिनों) का समाहार
सतसई = सात सौ का समाहार
सप्तशती = सप्त शतकों का समाहार
सप्तर्षि = सात ऋषियों का समूह
अष्ट-सिद्धि = आठ सिद्धियों का समाहार
नवरत्न = नौ रत्नों का समूह
नवरात्र = नौ रात्रियों का समाहार
दशक = दश का समाहार
शतक = सौ का समाहार
शताब्दी = शत (सौ) अब्दों (वर्षों) का समाहार
6. कर्मधारय समास
(i)कर्मधारय समास में एक पद विशेषण होता है तो दूसरा पद विशेष्य।
(ii) इसमें कहीं कहीं उपमेय उपमान का सम्बन्ध होता है तथा विग्रह
करने पर ‘रूपी’
शब्द प्रयुक्त होता है –
पुरुषोत्तम = पुरुष जो उत्तम
नीलकमल = नीला जो कमल
महापुरुष = महान् है जो पुरुष
घन-श्याम = घन जैसा श्याम
पीताम्बर = पीत है जो अम्बर
महर्षि = महान् है जो ऋषि
नराधम = अधम है जो नर
अधमरा = आधा है जो मरा
रक्ताम्बर = रक्त के रंग का (लाल) जो अम्बर
कुमति = कुत्सित जो मति
कुपुत्र = कुत्सित जो पुत्र
दुष्कर्म = दूषित है जो कर्म
चरम-सीमा = चरम है जो सीमा
लाल-मिर्च = लाल है जो मिर्च
कृष्ण-पक्ष = कृष्ण (काला) है जो पक्ष
मन्द-बुद्धि = मन्द जो बुद्धि
शुभागमन = शुभ है जो आगमन
नीलोत्पल = नीला है जो उत्पल
मृग नयन = मृग के समान नयन
चन्द्र मुख = चन्द्र जैसा मुख
राजर्षि = जो राजा भी है और ऋषि भी
नरसिंह = जो नर भी है और सिंह भी
मुख-चन्द्र = मुख रूपी चन्द्रमा
वचनामृत = वचनरूपी अमृत
भव-सागर = भव रूपी सागर
चरण-कमल = चरण रूपी कमल
क्रोधाग्नि = क्रोध रूपी अग्नि
चरणारविन्द = चरण रूपी अरविन्द

विद्या-धन = विद्यारूपी धन

          

Thursday 18 August 2016

संख्या पद्धति

संख्याओं के प्रकार 
संख्याऐं कई प्रकार की होती है, जो इस प्रकार है।
1. वास्तविक संख्याऐं -
आम गणना में प्रयोग होने वाली सभी संख्यायें वास्तविक संख्यायें कहलाती हैं | जैसे- 1,0,2/3,,√3/4 ......
    समिश्र संख्या -गणित में समिश्र संख्याएँ (complex number) वास्तविक संख्याओं का विस्तार है। किसी वास्तविक संख्या में एक काल्पनिक भाग जोड़ देने से समिश्र संख्या बनती है। समिश्र संख्या के काल्पनिक भाग के साथ i जुड़ा होता है जो निम्नलिखित सम्बन्ध को संतुष्ट करती है:
i^2= -1
किसी भी समिश्र संख्या को a + bi, के रूप में व्यक्त किया जा सकता है जिसमें a और b दोनो ही वास्तविक संख्याएं हैं। a + bi में a को वास्तविक भाग तथा b को काल्पनिक भाग कहते हैं। उदाहरण: 3 + 4i एक समिश्र संख्या है।
2. अवास्तविक संख्याऐं
3. प्राकृत संख्याऐं - 
1. ये संख्याऐं जो एक से लेकर अनन्त तक लिखी जाती है। उदा:- 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7,………. अनन्त ।
2. इन्हे N से दर्षाते है।
3. सबसे छोटी प्राकृत संख्या धनात्मक 1 है।
4. सबसे बड़ी प्राकृत संख्या धनात्मक अनन्त है

4. पुर्ण संख्याऐं-  जब प्राकृत संख्या में 0 को मिला दिया जाये तो वह संख्या पूर्ण संख्या कहलाती है 
1. वे संख्याऐं जो 0 से लेकर अनन्त तक लिखी जाती है। जैसे:- 0, 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7,………….अनन्त ।
2. इन्हे W से दर्शाते है।3. सबसे छोटी संख्या 0 है।
4. सबसे बड़ी पूर्ण संख्या अनन्त है।
नोट :- पूर्ण संख्याओं का क्षेत्र व्यापक होता है अतः एक प्राकृत संख्या सदैव पूर्ण संख्या होगी। लेकिन
एक पूर्ण संख्या प्राकृत संख्या हो यह आवश्यक  नही है।

5. सम संख्याऐं- 
वे संख्याऐं जिनमें दो का पुरा पुरा भाग जाता है।
उदा – 2, 4, 6, 8, 10, 12, 14, 16, 20, 150, 200, 356………..सम अनन्त

6. विषम संख्याऐं - वह संख्या जिसमें 2 का पुरा पुरा भाग नही जाये ।उदाः- 1, 3, 5, 7, 9, 11, 13, 15, 17, 19, 21, 25……विषम अनन्त ।

7. पुर्णाक संख्याऐं- 
1. संख्याओं का वह समूह जो 0 प्रारम्भ होकर दोनों तरफ अर्थात् धनात्मक एवं ऋणात्मक रूप से
गणना किया जा सके पूर्ण संख्याऐं होती है । उदा. – ( अनन्त…….., -3, -2, -1, 0, 1, 2, 3,
……..अनन्त)
2. इन्हे I से दर्शाते है।

8. परिमेय संख्याऐं -
वास्तविक संख्याऐं जिनको p/q के रूप में लिखा जाये वे परिमेय संख्याऐं होती है जहाँ Q का मान किभी भी 0
या 0 के बराबर नही होगा अर्थात् Q ≠ 0 होगा ।
उदा:- 8/11, 75/89

दो परिमेय संख्या के बीच अनगिनत परिमेय संख्या निकालना:-
यदि दो संख्या p और q हैं और इनके बीच हमें n परिमेय संख्या निकालना है तो इसके दो बिधि है 
पहली विधि :- इस सूत्र में n = 1, 2, 3, ----- है 
उदाहरण:- 2 और 3 के बीच 2 परिमेय संख्या निकालें
हल :- यहाँ p = 2 और q = 3 है , पहली संख्या के लिए n = 1 लेने पर 5/2 तथा n = 2 रखने से 8/3 प्राप्त होती है. आप n के अलग अलग मान के लिए अ
पनी इच्छा से अनगिनत संख्या निकाल सकते हैं .
दूसरी विधि :- संख्य को 10 से गुना और भाग करें 
2 = 20/10 और 3 = 30/10 लिख सकते हैं. 
21/10 , 22/10 , 23/10 -----------29/10 परिमेय संख्या है . आप 100 से गुना और भाग देकर और भी अधिक संख्या निकाल सकते हैं 
2 = 200/100 और 3 = 300 / 100 है और 201/100 , 202/100---------------299/100 परिमेय है.

9. अपरिमेय संख्याऐं -
जब संख्याओं को p/q के रूप में नहीं लिखा जा सके अपरिमेय संख्याऐं होती है। जहाँ Q कभी भी 0 के बराबर
नहीं होगा । उदा:- √5, √8, √15, √7/4, ά, β. γ, δ, 10, 15 आदि ।
नोट 2:- अपरिमेय संख्याऐं कभी भी पूर्ण वर्ग नहीं होती।
नोट 3:- दो परिमेय संख्याओं का योग = परिमेय संख्या होगा ।
नोट 4:- दो परिमेय संख्याओं की गुणा = परिमेय संख्या होगी ।
नोट 5:- एक परिमेय एवं एक अपरिमेय का योग = अपरिमेय संख्या होगी ।
नोट 6:- एक परिमेय एवं एक अपरिमेय की गुणा = अपरिमेय संख्या होगी ।

10. भाज्य संख्याऐं/योग संख्याऐं/यौगिक संख्याऐं -
वे संख्याऐं जिसमें स्वयं के अलावा किसी एक या अधिक अन्य संख्या का भी पूरा-पूरा भाग जाता है।
11. अभाज्य संख्याऐं/रूढ़ संख्याएं- 
वे संख्याऐं जिनमें स्वयं के अलावा अन्य किसी संख्या का पूरा-पूरा भाग नही जाता है।
उदा. – 2, 3, 5, 7, 11, 13, 17, 19, 23, 29, 31, 37, 41, 43, 47, 53, 59, 61, 67, 71, 73,
79, आदि ।
नोट 7 – प्रथम अभाज्य संख्या 2 है।
नोट 8 – केवल प्रथम अभाज्य सम है।
नोट 9 – प्रथम अभाज्य संख्या के अलावा अन्य सभी अभाज्य संख्या विषम है।
नोट 10 – संख्या एक न तो भाज्य है न ही अभाज्य है।

दो संख्या के बीच कितने अभाज्य संख्या है को निकालने के लिए कोई संख्या इरास्थेनिस के द्वारा एक बिधि का उल्लेख आता है परन्तु प्रतियोगिता परीक्षा में किसी दी हुई संख्या के अभाज्य होने या न होने पर प्रश्न पूछे जाते हैं. मान लीजिये की p एक दी हुई संख्या है तो सबसे पहले आप n एक ऐसी संख्या खोजिये जिससे n^2 ≥ p हो . अब आप n से छोटी सभी अभाज्य संख्या से p को भाग दें यदि p इनमे से किसी भी संख्या से भाजित न हो तो p अभाज्य है नहीं तो p भाज्य होगी 
उदाहरण :- क्या 437 अभाज्य है ?
हल :- यहाँ (21)^2 > 437 है और 21 से छोटी अभाज्य संख्या क्रमशः 2, 3, 5, 7,11,13,17,19 है और 437 संख्या 19 से विभाजित है अतः 437 अभाज्य नहीं है
उदाहरण :- क्या 811 अभाज्य है ?
हल :- यहाँ (30)^2 > 811 है और 30 से छोटी अभाज्य संख्या क्रमशः 2, 3, 5, 7,11,13,17,19,23 और 29 है और 437 किसी संख्या से विभाजित नहीं है अतः 811 अभाज्य है. 
12. सह अभाज्य संख्याऐ -
1. ऐसी संख्याओं का जोड़ा जिनमें उभनिष्ठ गुणनखड न हो अर्थात् संख्याओं का ऐसा जोड़ा जिनको किसी एक
ही संख्या से विभाजित नही किया जा सकता ।
2. सह अभाज्य में 1 संख्या भाज्य भी हो सकती है।
3. उभनिष्ठ गुणनखण्ड में 1 नही माना जाता है
उदा.- 3, 8 5, 16 7, 20 आदि जोड़े सहअभाज्य है।

Tuesday 16 August 2016

विकास की अवस्थायें

                                                      विकास की अवस्थायें
बाल विकास की प्रक्रिया भुर्नावस्था से जीवन भर चलती है फिर भी मनोवैज्ञानिकों ने बालक की अवस्थाओं को विभाजित करने का प्रयत्न किया है जो इस प्रकार है -
(अ) रोस के अनुसार :-
(1) शैशवकाल                    1 से 3 वर्ष तक
(2) पूर्व-बाल्यावस्था              3 से 6 वर्ष तक
(3) उत्तर- बाल्यावस्था          6 से 12 वर्ष तक
(4) किशोरावस्था                  12 से 18 वर्ष तक

(ब) जोन्स के अनुसार :-
(1) शैशवावस्था                  जन्म से 5 वर्ष की आयु तक
(2) बाल्यावस्था                    5 वर्ष से 12 वर्ष की आयु तक
(3) किशोरावस्था                 12 वर्ष से 18 वर्ष की आयु तक

(स) हरलोक के अनुसार :- 
(1) गर्भावस्था                        गर्भधारण  से जन्म तक
(2) नवजात अवस्था              जन्म से 14 दिन तक
(3) शैशवावस्था                     14 दिन से 2 वर्ष की आयु तक
(4) बाल्यावस्था                      2 वर्ष से 11 वर्ष की आयु तक
(5) किशोरावस्था                   11 वर्ष से 21 वर्ष की आयु तक

(द) सामान्य वर्गीकरण : - अब अधिकाँश विद्वान् सामान्य वर्गीकरण को हो मानते है जो इस प्रकार है :- 

(1) शैशवावस्था                   जन्म से 6 वर्ष की आयु तक 
(2) बाल्यावस्था                    6 वर्ष से 12 वर्ष की आयु तक 
(3) किशोरावस्था                 12 वर्ष से 18 वर्ष की आयु तक
            
विकास की अवस्थाएं: मानव विकास विभिन्न अवस्थाओं से होकर गुजरता है; इन्हें निम्न अवस्थाओं में विभाजित किया जा सकता है:
गर्भावस्था: यह अवस्था गर्भाधान से जन्म के समय तक, 9 महिना या 280 दिन तक मानी जातीहै -: 
शैशवावस्था :-बालक के जन्म लेने के उपरांत की अवस्था को शैशवावस्था  कहते है . यह अवस्था 5-6 वर्ष की आयु तक मानी जाती है .  इस अवस्था का प्रसार छेत्र जन्म से दो वर्ष तक होता है . बालक की शारीरिक प्रतिक्रिया जैसे भूख लगना , अधिक गर्मी से अकुलाहट का होना ,अधिक ठण्ड से कांपना ,दर्द की अनुभूति करना तथा चमक व कोलाहल के प्रति बालक में घ्रणा का भाव उत्पन्न हो जाता है .2 माह की अवस्था में बालक वस्तुओं पर ध्यान केन्द्रित करने लगता है . 4 माह में वस्तुओं को पकड़ने व् संवेगों की स्पस्ट अभिव्कती करने लगता है .जन्म से पांचवे वर्ष तक की अवस्था को शैशवावस्था कहा जाता है. इस अवस्था को समायोजन की अवस्था भी कहते हैं.यह वह अवस्था होती है जब शिशु असहाय स्थितियों में अनेक मूल प्रवृतियो , आवश्यकताओ एवं शक्तियों के लेकर इस संसार में आता है , वह दूसरों पर निर्भर होता है .
विशेषताएं

  • शिशु शारीरिक एवं मानसिक रूप से अपरिपक्व होता है  
  • इस अवस्था में विकास की गति तीव्र होती है.
  • शरीर के समस्त अंगों की रचना और आकृतियों का निर्माण होता है.
  • इस अवस्था में होने वाले परिवर्तन मुख्यतः शारीरिक होते हैं.
  • इस अवस्था में बालक अपरिपक्व होता है तथा वह पूर्णतया दूसरों पर निर्भर रहता है.
  • यह अवस्था संवेग प्रधान होती है तथा बालकों के भीतर लगभग सभी प्रमुख संवेग जैसे- प्रसन्नता, क्रोध, हर्ष, प्रेम, घृणा, आदि विकसित हो जाते हैं.
  • फ्रायड ने इस अवस्था को बालक का निर्माण काल कहा है. उनका मानना था कि ‘मनुष्य को जो भी बनाना होता है, वह प्रारंभिक पांच वर्षों में ही बन जाता है.         
क्रो एवं क्रो ने " बीसवी सदी को 'बालक की शताब्दी " कहा है .
एडलर ने लिखा है " बालक के जन्म के कुछ माह बाद ही यह निश्चित किया जा सकता है की जीवन में उसका क्या स्थान है "
स्ट्रेंग ने लिखा है " जीवन के प्रथम दो वर्षो में बालक अपने भाव जीवन का शिलान्यास करता है"

बाल्यावस्था: शैशवास्था के बाद बालक बाल्यावस्था  आती है जो 6  से बारह वर्ष की अवधि को बाल्यावस्था कहा जाता है. इसे पूर्व किशोरावस्था भी कहते है . इसे मानव जीवन का स्वर्णिम समय कहा गया है यह फ्रायड का मानना है की बलाक का विकास 5 वर्ष की आयु तक हो जाता है .ब्येयर , जोन्स एवं सिम्पसन ने लिखा है " बाल्यावस्था एक ऐसी अवस्था है जिसमे की व्यक्ति का आधारभूत द्रष्टिकोण ,मूल्य एवं आदर्शों का बहुत सीमा तक निर्माण हो जाता है". कोल एवं बस ने बाल्यावस्था को जीवन का अनोखा काल कहा है .यह  अवस्था शारीरिक और मानसिक विकास की दृष्टी से महत्वपूर्ण होती है.
विशेषताएं:
  • बच्चे बहुत ही जिज्ञाशु प्रवृति का हो जाता उनमें जानने की प्रबल इच्छा होती है.
  • बच्चों में प्रश्न पूछने की प्रवृति विकसित होती है.
  • सामाजिकता का अधिकतम विकास होता है
  • इस अवस्था में बच्चों में मित्र बनाने की प्रबल इच्छा होती है
  • बालकों में ‘समूह प्रवृति’ (Gregariousness) का विकास होता है
  • शिक्षशाश्त्रीयों ने इस अवस्था को प्रारम्भिक विद्यालय की आयु की संज्ञा दी है . 
  • जबकि मनोवैज्ञानिकों ने इस काल को 'समूह की आयु ' कहा है 
  • इस काल को गन्दी आयु  एवं चुस्ती की आयु , मिथ्या परिपक्वता की संज्ञा भी दी गयी है 
  • इस काल में शारीरिक एवं मानसिक विकास में स्थिरता होती है . 
  • भ्रमण की प्रवृति , रचनात्मक कार्यों में रूचि,अनुकरण की प्रवृति , मानसिक योग्यताओं में वृद्धि,संचय की प्रवृति,आत्मनिर्भरता, सामूहिक प्रवृति की प्रबलता , बहिर्मुखी व्यक्तित्व , सामूहिक खेलों में विशेष रूचि , सुप्त कम प्रवृति , पुन्स्मरण , यथार्थ जगत से सम्बन्ध ,  आदि विशेषताएं इस काल  में होती है ,

बाल्यावस्था में शारीरिक विकास 


  • भार- जन्म के समय बालक का भार 5 से 8 पोंड के बिच होता है , इस अवस्था में 12 वर्ष के अंत तक बालक का भार 80 से 95 पोंड के बिच होता है , प्राय बालिकाओं का भार अधिक होता है .

  • कद - जन्म के समय शिशु की लम्बाई 20 इंच तक होती है , अध्ययनों से ज्ञात हुआ है की 2-3 इंच की लम्बाई प्रति वर्ष बढती है .
  • दांत- 6 वर्ष की आयु में दूध के दन्त गिरने लगते है और उनके स्थान पर नए दन्त निकल आते है . 
  • सामान्य स्वास्थ्य - इस अवस्था में चुस्ती व स्फूर्ति के कारन गत्यात्मकता अधिक पाई जाती है . 

बाल्यावस्था में मानसिक विकास 

  • सहज प्रवृतियो तथा मूल प्रवृतियो का विकास 
  • रुचियों में विस्तार 
  • चिंतन का विकास 
  • समस्या- समाधान की प्रवृति 
  • स्राज्नात्मकता का विकास 
  • संख्या , गति , स्थान तथा समय का ज्ञान 
  • भाषा का विकास 

बाल्यावस्था में संवेगात्मक विकास 

बाल्यावस्था में संवेगात्मक विकास का आधार मूल प्रवृतिया है . इस अवस्था में संवेगों की स्थिति इस प्रकार होती है - संवेगों का निर्बल होना , भय ,हताशा , क्रोध ,इर्ष्या , जिज्ञासा , स्नेह , प्रफुलता .
संवेगों को प्रभावित होने वाले कारक
बालक का स्वास्थ्य, थकान , बुद्धि तथा मानसिक योग्यता , बन्शानुक्रम , परिवार , माता -पिता का द्रष्टिकोण , सामाजिक स्थिति , आर्थिक स्थिति , विद्यालय , एवं शिक्षक . 

किशोरावस्था: यह बाल्यावस्था एवं युवावस्था के मध्य होती है  12-18 वर्ष की अवधि को किशोरावस्था माना जाता है. इस अवस्था को जीवन का संधिकाल कहा गया है.किशोरावस्था को परिभाषित करते हुए विभिन विद्वानों को परिभाषाएं
स्टेनल होल - " किशोरावस्था बड़े संघर्ष , तनाव ,तूफान तथा विरोध का अवस्था है .
ब्लेयर ,जोन्स एवं सिम्पसन -" किशोरावस्था प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का वह काल है जो बाल्यावस्था से प्रारंभ होता है और पोड़ावस्था के प्रारंभ में समाप्त होता है ." 
विशेषताएं:
  • इस अवस्था में बालकों में समस्या की अधिकता, कल्पना की अधिकता और सामाजिक अस्थिरता होती है जिसमें विरोधी प्रवृतियों का विकास होता है.
  • किशोरावस्था की अवधि कल्पनात्मक और भावनात्मक होती है.
  • इस अवस्था में बालकों में विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण बढ़ता है और वे भावी जीवन साथी की तलाश भी करते है.
  • उत्तर किशोरावस्था में व्यवहार में स्थायित्व आने लगता है
  • किशोरों में अनुशासन तथा सामाजिक नियंत्रण का भाव विकसित होने लगता है
  • इस अवस्था में समायोजन की क्षमता कम पायी जाती है.
  • तीव्र मानसिक विकास 
  • व्यव्हार में विभिन्नता , मित्रता , स्थ्यित्व एवं समायोजन का आभाव .
  • कामुकता का जागरण , कल्पना का बाहुल्य , आत्म-सम्मान की भावना , परमार्थ की भावना . 
  • बुद्धि का अधिकतम विकास , नेतृत्व की भावना , अपराध प्रवृति का विकास , रुचियों में परिवर्तन एवं स्थिरता. 
  • समूह को महत्त्व , वीर पूजा की भावना , समाज सेवा की भावना , धार्मिक चेतना .
प्रोढ़ावस्था: 21-60 वर्ष की अवस्था प्रोढ़ावस्था कहलाती है. यह गृहस्थ जीवन की अवस्था है जिसमें व्यक्ति को जीवन की वास्तविकता का बोध होता है और वास्तविक जीवन की अन्तःक्रियाएं होती है.
विशेषताएं:
  • इस अवस्था में व्यक्ति अपने जीवन के लक्ष्यों को पाने की कोशिश करता है.
  • व्यक्ति आत्मनिर्भर होता है
  • व्यक्ति की प्रतिभा उभर कर सामने आती है.
  • यह सामाजिक तथा व्यावसायिक क्षेत्र के विकास की उत्कृष्ट अवस्था है.
वृद्धावस्था:  60 वर्ष से जीवन के अंत समय तक की अवधि को वृद्धावस्था कहा जाता है;
विशेषताएं:
  • यह ह्रास की अवस्था होती है, इस आयु में शारीरिक और मानसिक क्षमता का ह्रास होने लगता है.
  • स्मरण की कमजोरी, निर्णय की क्षमता में कमी, समायोजन का आभाव आदि इस अवस्था की विशेषताएं है.
  • इस अवस्था में व्यक्ति में अध्यात्मिक चिंतन की ओर बढ़ता है.