Sunday, 14 August 2016

विकास की अवधारणा

विकास की प्रकिर्या सतत यानि लगातार चलने वाली प्रकिर्या है I विकास की प्रक्रिया में बालक का सम्पूर्ण विकास होता है जैसे संवेगात्मक विकास , शारीरिक विकास  ,संज्ञानात्मक विकास , भाषागत विकास एवं सामाजिक विकास .
बाल विकास एक व्यापक अवधारणा है जिसके अंतर्गत मनुष्य में जन्म से लेकर मृत्युपर्यंत तक होने वाले सभी परिमाणात्मक तथा गुणात्मक परिवर्तनों को सम्मिलित किया जाता है. अर्थात बढ़ती उम्र के साथ मनुष्य की शारीरिक संरचना या आकार, लम्बाई, भार और आतंरिक अंगों में होने वाले परिवर्तनों के साथ-साथ मानसिक, भावनात्मक, सामाजिक, बौद्धिक आदि पक्षों में परिपक्वता विकास कहलाती है.
विकास एक क्रमिक तथा निरंतर चलने वाली सतत प्रक्रिया है, जो शारीरिक वृद्धि के अवरुद्ध हो जाने के बाद भी चलता रहता है तथा जन्म से लेकर मृत्युपर्यंत चलता रहता है. यह क्रमबद्ध रूप से होने वाले सुसंगत परिवर्तनों की क्रमिक श्रृंखला है. कहने का तात्पर्य यह है कि ये परिवर्तान एक निश्चित दिशा में होते हैं जो सदैव आगे की ओर उन्मुक्त रहती है.
वृद्धि तथा विकास में अंतर: आमतौर पर वृद्धि तथा विकास का अर्थ एकसमान मान लिया जाता है लेकिन मनोवैज्ञानिक अवधारणा के अनुसार ये परस्पर भिन्न होते हैं. वृद्धि शब्द का प्रयोग, बढ़ती उम्र के साथ व्यक्ति के शारीरिक अंगों के आकार, लम्बाई, और भार में बढ़ोतरी के लिए किया जाता है. मनुष्य जैसे-जैसे बड़ा होता है उसका आकार, लम्बाई, नाक-नक्श आदि में परिवर्तन आने लगता है इसके स्थान पर नए नाक-नक्श आदि प्रकट होने लगता है. अर्थात वृद्धि को मापा जा सकता है किन्तु विकास व्यक्ति की क्रियाओं में निरंतर होने वाले परिवर्तनों में परिलक्षित होता है. अतः मनोवैज्ञानिक अर्थों में विकास केवल शारीरिक आकार, और अंगों में परिवर्तन होना ही नहीं है, यह नई विशेषताओं और क्षमताओं का विकसित होना भी है जो गर्भावस्था से प्रारंभ होकर वृद्धावस्था तक चलता रहता है. विकास के परिणामस्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषताएं और नवीन योग्यताएं प्रकट होती है.
विकास और अधिगम में सम्बन्ध  
अधिगम (learning) का विकास से सीधा सम्बन्ध है. जन्म से ही मनुष्य सीखना प्रारंभ कर देता है और जीवन पर्यंत सीखता रहता है. जैसे-जैसे आयु बढ़ती है मनुष्य अपने अनुभवों के साथ-साथ व्यवहारों में भी परिवर्तन और परिमार्जन करता है वस्तुतः यही अधिगम है इसे ही सीखना कहते हैं. मनुष्य अपने विकास की प्रत्येक अवस्था में कुछ न कुछ अवश्य सीखता है लेकिन प्रत्येक अवस्था में सीखने की गति एक सामान नहीं होती. शैशवास्था में बालक माता के स्तन से दूध पीना सीखता है, बोतल द्वारा दूध पिलाये जाने पर निपल मुहं में कैसे ले यह सीखता है, थोडा बड़े होने पर ध्वनी और प्रकश से प्रतिक्रिया करना सीखता है. इस प्रकार मनुष्य जैसे-जैसे बड़ा होता जाता जाता है अपनी जरूरतों और अनुभवों से सीखता चला जाता है.
स्मरणीय बिंदु 

  1. विकास में उस प्रक्रिया का निरूपण किया जाता है जिसके द्वारा कोई व्यक्ति बढता है और गर्भधारण से मृत्यु पर्यंत के जीवन कल में उसमे परिवर्तन होते है .
  2. विकास व्यवस्थित , नियमित, प्रगत्यात्मक , बहु -आयामी , प्लास्टिक (लचीला ), और प्रासंगिक होता है . 
  3. विकास के प्रमुख प्रभाव छेत्र शारीरिक , संज्ञानात्मक , और सामाजिक -संवेगात्मक होते है . 
  4. आनुवांशिक घटकों का निर्धारण गर्घ-घारण के समय होता है और जेनेटिक सूचनाओ का संवहन जिन्स और गुणसूत्रों द्वारा होता है .
  5. जेनो टाइप्स  से तात्पर्य है वे अभिलक्षण जिनका वहण जेनेटिक्स के मध्यम से होता है परन्तु वे प्रदर्शित नहीं होतें . 
  6. फिनो टाइप्स में वे अभिलक्षण  निरुपित किये जाते है जिन्हें देखा जा सकता है . 
  7. परिवेशीय घटकों का प्रसव-पूर्व एवं पसव उपरांत , दोनों स्थितियों में विकास पर प्रभाव पड़ता है .
  8. माँ का रोग,पोषण , और तनाव, भ्रूण के विकास पर प्रभाव डाल सकता है .
  9. प्रकृति और पालन -पोषण संयुक्त रूप से विकास को प्रभावित करतें है .

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