Saturday, 24 September 2016

बालक में संवेगात्मक विकास

बच्चों का संवेगात्मक वातावरण, उसके व्यकितत्व के भावात्मक तत्त्व और निशिचत पदाथो±, व्यकितयों और परिसिथतियों के प्रति उसके भाव से निर्मित होता है। जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है और विकसित होता है, उसके अनुभव तथा ज्ञान की सीमा विस्तृत होती जाती है, उसकी अन्योन्यक्रिया बढ़ती जाती है तथा उसे प्रभावित करने वाले व्यकितयों की संख्या भी बढ़ती जाती है। अपने माता-पिता, मित्रा, भार्इ-बहन, शिक्षक और अन्य महत्त्वपूर्ण व्यकितयों से उसके पारस्परिक संबंध् और उनके प्रति अपनी संवेदनाओं के द्वारा ही बच्चा प्रमुख रूप से निर्देशित होता है। क्या बच्चा इन सबके बारे में अच्छा महसूस करता है? क्या इनकी उपेक्षा करता है? क्या उनसे स्नेह का भाव रखता है? क्या वह अपनी छोटी बहन या भार्इ से र्इष्र्या करता है? ये सभी प्रश्न बच्चे के भावात्मक पक्ष को दर्शाते हैं। बच्चों की संवेदना महत्त्वपूर्ण होती है, यह उसके पारस्परिक संबंधें की दिशा तथा उत्कृष्टता का निर्धरण कर उसके स्वभाव को निशिचत रूपरेखा प्रदान करती है। एक बच्चा जो अपनी माँ से स्नेह करता है, उसे खुश करने के लिए वह सब कुछ करता है जो वह कर सकता है, इसके विपरीत यदि वह किसी व्यकित से घृणा करता है तो उसका व्यवहार बहुत नकारात्मक तथा घृणा से भरा हुआ होगा। संवेग की प्रकृति सकारात्मक तथा नकारात्मक दोनाें प्रकार की होती है। वे संवेग जो प्रेम, प्रशंसा, दया तथा खुशी जैसे सकारात्मक परिणाम के रूप में व्यवहार में नजर आते हैं, उन्हें सकारात्मक संवेग कहते है। दूसरी तरपफ जो अवांछित, अप्रीतिकर और हानिकारक व्यवहार जैसे र्इष्र्या, क्रोध्, घृणा इत्यादि के रूप में दृषिटगत होते हैं उन्हें नकारात्मक संवेग कहते हैं।
संवेग का विकास-संवेगात्मक विकास विशिष्ट और व्यकितपरक होता है परंतु सामान्य रूप में कुछ प्रवृत्तियाँ सभी बच्चों में मौजूद होती हैं। सभी जानते हैं कि नवजात बच्चा अत्यधिक उत्तेजित होता है और उसके संवेग विसरित और सामान्य रूप में अभिव्यक्त होते हैं। प्रारंभिक बाल्यावस्था में, संवेग जैसे क्रोध् भय और प्रेम, स्वतंत्रारूप से, अल्प अवधि के लिए तथा स्वाभाविक रूप से व्यक्त किए जाते हैं। जबकि वयस्कों का स्वभाव अपेक्षाकृत जटिल होता है उनके संवेग मिश्रित होते हैं, दमित होते हैं, इनके संवेगों में भावों को व्यक्त करने से रोका जाता है और वे अपेक्षाकृत लंबे समय तक बने रहते हैं। संवेगों का विकास, बाल्यावस्था के सहज, स्वतंत्रा तथा संक्षिप्त अभिव्यक्त संवेगों से वयस्क अवस्था के जटिल, लंबे समय तक चलने वाला तथा नियंत्रित संवेग, तक की सम्पूर्ण प्रक्रिया को व्याख्यायित करता है।    
संवेगात्मक विकास, संज्ञानात्मक विकास या नैतिक विकास की तरह प्रतीकात्मक चरणों या पथों का अनुसरण नहीं करता है। इसी प्रकार कोर्इ संवेगात्मक आयु, मानक या संवेगात्मक ग्रहणीकरण की विशिष्ट प्रक्रिया नहीं होती है। इसलिए प्रत्येक बच्चे को उसकी विशिष्टता तथा व्यैत्तिफकता के आèाार पर मूल्यांकित किया जाना चाहिए न कि समूह मानदण्ड के आधर पर। ऐसा इसलिए है क्योंकि संवेग जटिल तथा भिन्नता दिखलाने वाले होते हैं। उदाहरणस्वरूप, एक माँ जो अपने बच्चे को आज्ञा-उल्लंघन करने की सज़ा देती है, तो यह व्यवहार बच्चे में दो अलग-अलग प्रकार के संवेग उत्पन्न करता है। यदि बच्चे और माँ का संबंध् स्नेहपूर्ण तथा सुरक्षित है तो वह सजा के प्रति प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त करेगा और माँ का दिया हुआ दण्ड सहर्ष स्वीकार करेगा परंतु वह बच्चा जो अपनी माँ के साथ सुरक्षा का भाव महसूस नही करता वह हिंसक रूप से प्रतिक्रिया व्यक्त करेगा और अपनी माँ के प्रति बहुत तीव्र घृणा का भाव विकसित कर सकता है।
बच्चों में 'संवेगात्मक परिपक्वता से ज्यादा महत्त्वपूर्ण अवधरणा 'संवेगात्मक स्वास्थ्य है। 'संवेगात्मक-परिपक्वता, अपने संवेगों को समाज के द्वारा स्वीकार्य बनाने के लिए किये जाने वाले नियंत्राण की क्षमता को प्रदर्शित करती है या एक अहानिकर तरीका जो केवल युवावस्था में स्वयं को व्यक्त करने की क्षमता है जबकि 'संवेगात्मक स्वास्थ्य किसी भी निर्दिष्ट समय में व्यकित की संवदेनात्मक अवस्था को दर्शाता है। सकारात्मक संवेगात्मक संवेग ही महसूस करना चाहिए। जबकि भय और क्रोध् जैसे संवेगों की अनुभूति बिल्कुल स्वाभाविक है, परन्तु इनकी अत्यधिक प्रभावशीलता तथा महत्ता व्यकित के 'संवेगात्मक-स्वास्थ्य को कठिनार्इ में डाल देती है, जबकि भय और क्रोध् से भी ज्यादा विनाशकारी चिंता का भाव होता है। जहाँ भय विशिष्ट होता है तथा किसी वस्तु, व्यकित या परिसिथति से संबंधित हो सकता हैं, वहीं चिन्ता विसरित तथा सामान्यीÑत महसूस होती है।
सामान्यत: सामान्यीÑत चिन्ता के भाव से मुक्त होने के बजाय व्यकित के लिए किसी विशेष भय को नियंत्रित करना या उसे दूर करना ज्यादा आसान होता है। अपनी व्यापक प्रÑति के कारण, बहुत से मानसिक स्वास्थ्य-विज्ञानी, चिन्ता को मनुष्य के दु:ख और समायोजन में आने वाली कठिनार्इ के रूप में देखते हैं जो तनाव और दु:ख उत्पन्न करती है। इस प्रकार, 'सकारात्मक मानसिक स्वास्थ्य चिरकालिक भय, क्रोध्, तनाव तथा चिन्ता से मुक्त एक अवस्था है।
बच्चों के संवेगों की सामान्य निर्मिति-
अ प्रारंभिक वषो± में, बच्चे के संवेगों में तीव्रता से बदलाव आता है, ध्ीरे-ध्ीरे संवेग तथा भाव बाल्यावस्था के अंतिम चरण में सिथर होने लगते हैं।
अ यधपि बालक के संवेगात्मक व्यवहार का आधर नैसर्गिक होता है, तथापि बच्चा से अपने संवेगों को इस प्रकार अर्जित करता है कि वे उसके जीवन के अनुभवों के सवा±गसम हो।
अ प्रत्येक बच्चे के प्राथमिक संवेगात्मक व्यवहार का प्रतिमान, नैसर्गिक कारकों तथा समाज और संस्Ñतिऋ जिसमें बच्चा पलता हैऋ के सभी सदस्यों पर प्रायोगिक, सार्वभौमिक संवेगात्मक व्यवहार प्रतिमान पर आधरित होता है।   
अ बच्चा जब विधालय जाना प्रारंभ करता है, तब तक उसके प्राथमिक संवेगात्मक व्यवहार
प्रतिमान स्पष्टत: स्थापित हो चुके होते हैं। उसके बाद के संवेगात्मक परिवर्तन, अधिगम अनुभव तथा वातावरणीय प्रभाव के परिणामस्वरूप होते हंै।
अ बच्चा अपने जीवन के सामाजिक तथा सांस्Ñतिक संदभो± एवं प्रासंगिकता से जो सीखता है, वह बाल्यावस्था में सार्वभौमिक संवेगात्मक व्यवहार प्रतिमान के रूप में उत्पन्न होता है।
अ संवेगात्मक-अधिगम, घर तथा विधालय के संवेगात्मक वातावरण से अत्यधिक प्रभावित होता है।
अ सामान्यत:, निम्न सामाजिक-आर्थिक तथा सामाजिक-सांस्Ñतिक परिवेश से आने वाले बच्चे, अधिक संवेगात्मक समस्याओं का सामना करते हैं तथा प्राय: स्वयं के प्रति नकारात्मक अवèाारणा विकसित कर लेते हैं।
अ जाति, सम्प्रदाय, सामाजिक और आर्थिक स्तर से निरपेक्ष, स्वयं में तथा दूसरों में विश्वास, बच्चें की सबसे महत्त्वपूर्ण संवेगात्मक आवश्यकता है। जब बच्चे के पास सपफलता के
अनुभव होते हैं तो उसका स्वयं के प्रति विश्वास और बढ़ता है। अपनी कमियों और गलतियों के बावजूद एक अर्थपूर्ण व्यकित के रूप में स्वीकार्य किए जाने पर, उसमें दूसरो के प्रति विश्वास की भावना आती है।
अ सामाजिक स्वीकार्य संवेग को सीखने के लिए बच्चों को मदद की आवश्यकता होती है।
अ यधपि, प्रारंभिक अवस्था में बच्चा, पूर्ण संवेगात्मक परिपक्वता नहीं प्राप्त कर सकता है, परंतु पर्याप्त संवेगात्मक सहयोग तथा मार्गदर्शन, बच्चे को परिपक्वता के साथ संवेगों का
प्रभावशाली उपयोग सिखा सकता है तथा स्वस्थ पारस्परिक संबंधें को स्थापित कर सकता है।
शैशवास्था में संवेगात्मक विकास-
बालक के संवेगों की अभिव्यकित मेंं शैशवास्था में लगातार भिन्नता नज़र आती है। जन्म के उपरांत, शुरू के कुछ महीनों में शिशु मनुष्य का चेहरा देखकर मुस्कुराता है और बाद में हँसता है।
शैशवास्था में भूख, क्रोध् और कष्ट को वह चिल्लाकर अभिव्यक्त करता है। इसी तरह, पहले वर्ष में भय, हर्ष और स्नेह की अभिव्यकितयाँ शिशु के चेहरे पर स्पष्ट रूप से नज़र आने लगती हैं। शनै:शनै: संवेगात्मक परिसिथतियों में शिशु का अत्यधिक प्रभावित होना भी क्रमश: कम हो जाता है। परन्तु पिफर नर्इ-नर्इ परिसिथतियाँ भी उसमें संवेगात्मक अनुभव उत्पन्न करती हेंै। किन परिसिथतियों का उस पर क्या संवेगात्मक प्रभाव पड़ेगा, यह उसके सीखने और उसकी परिपक्वता दोनाें पर निर्भर करता है। जन्म के 6 या 7 माह के अन्दर उसमें अजनबी चेहरों में अन्तर करने योग्य पर्याप्त परिपक्वता आ जाती है। शिशु की योग्यता के विकास के साथ साथ उसकी क्रियाओं का क्षेत्रा भी विस्तृत होता जाता है और क्रियाओं के क्षेत्रा बढ़ने के साथ उसमें संवेगात्मक अनुभव करने वाली परिसिथतियाँ भी बढ़ती जाती हैं। इस तरह शिशु का संवेगात्मक विकास उसके शारीरिक और मानसिक विकास के समानान्तर चलता रहता है।   
इस संवेगात्मक विकास में शिशु संवेग उत्पन्न करने वाली परिसिथति के प्रति क्रमश: निशिचत व्यवहार प्रतिमान बना लेता है। आरंभ में क्रोध् आने पर शिशु की गतियाँ न तो सुव्यवसिथत होती हैं और न ही वह क्रोध् उत्पन्न करने वाली उत्तेजना का निराकरण ही कर सकता है। जैसे-जैसे शिशु बड़ा होता है वह क्रोध् उत्पन्न करने वाली उत्तेजना का निराकरण करने में अधिक व्यवसिथत गतियाँ दिखलाता है। संवेगात्मक अभिव्यकित के साथ-साथ उसकी तीव्रता में भी अन्तर किया जा सकता है, कभी तो यह संवेगात्मक अभिव्यकित तीव्र होती है और कभी मन्द।
जो शिशु सात माह की आयु में दूध् की बोतल छीन लिये जाने पर क्रोधित हो उठता है और चिल्लाने और रोने लगता है, वह सात वर्ष की आयु में क्रोध् आने पर इतनी अधिक उत्तेजना नहीं दिखलाता। इस प्रकार, क्रमश: संवेगात्मक विकास के साथ-साथ उसकी अभिव्यकित की तीव्रता में भी अन्तर जाता है। बाल्यावस्था-पूर्व शैशव में शिशु का रोना, चिल्लाना आरंभिक शैशवास्था में कापफी कम होता है। यह कमी विशेषतया घर से बाहर शिशु के व्यवहार में दिखलायी पड़ती है। इस परिवर्तन के मूल में अनेक कारक कार्य करते हैं।
बाल्यावस्था में संवेगात्मक विकास-
बाल्यावस्था में संवेगों की अभिव्यकित अधिक विशिष्ठ होती जाती है, अब उसमें शैशवास्था जैसी तीव्रता नहीं रहती। बालक ऐसी अनेक बातों के प्रति कोर्इ संवेग नहीं दिखलाता, जो उसको शैशवास्था में अधिक उत्तेजना उत्पन्न करती थी। उदाहरणस्वरूप, अब वह नहाने या कपड़े पहनने में क्रोधित नहीं होता और अपरिचित व्यकित या जीव या वस्तु को देखकर नहीं डरता। बाल्यावस्था में संवेगात्मक विकास पर परिवार से अधिक मित्राों और सहपाठियों का प्रभाव पड़ता है। बाल्यावस्था में, संवेगों के विकास पर बाहरी कारकों का प्रभाव, अत्यंत स्पष्ट या तीव्र होता है। विधालय तथा घर का स्वतंत्रा एवं उन्मुत्तफ वातावरण बालक को उसके संवेगों को मुक्त रूप से अभिव्यक्त करने तथा उसमें उपयुक्त परिष्कार करने में सहयोग देता है। अत्यधिक नियंत्राण तथा कठोर अनुशासन से बच्चों के संवेगों की अभिव्यकित में बाध पड़ती है परिणामस्वरूप बालक में अनेक मानसिक ग्रंथियाँ बन जाती हैं जो उसके व्यत्तिफत्व के विकास के लिए बड़ी हानिकारक होती हैं। घर और विधालय के स्वस्थ वातावरण में और अच्छे आदर्श उपसिथत होने पर बालकों में स्वयं वांछनीय संवेगों का विकास होता है।
बच्चों के पारस्परिक संबंधें की प्रÑति तथा प्रतिमान-
बच्चों के पारस्परिक संबन्ध् ही उनकी दुनिया का निर्माण करते हैं। इस पारस्परिक यथार्थ जगत में वे स्वयं, उनके सहमित्रा, परिजन, आस-पड़ोस, समुदाय इत्यादि शामिल रहते हैं। बच्चों के पारस्परिक संबन्धें की प्रÑति तथा उसके प्रतिमान को हम निम्न प्रकार से समझ सकते हैं।
परिवार-
बच्चों के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण व्यत्तिफ उनके माता-पिता या अभिभावक होते हैं। अभिभावक बच्चों पर यथेष्ट प्रभाव रखते हैं और उनके सोचने-समझने, महसूस करने, कार्य करने और व्यवहार इत्यादि तरीका को निर्धरित करते हैं। बच्चों के सकारात्मक विकास में अभिभावक की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण एवं निर्णायक होती है। यही कारण है कि उनकी कुछ भूमिकाएँ भी निर्दिष्ट और अपेक्षित हैं।
अभिभावकों का प्राथमिक कार्य बच्चों को बचाव और सुरक्षा प्रदान करना है। सिर्पफ इसी प्रकार के अर्थात सुरक्षित वातावरण में ही एक बच्चा स्वयं को प्रिय, स्वीÑत और उल्लसित महसूस कर सकता है। एक बच्चा इस बात से संतुष्ट और निशिचत होना चाहता है कि उसकी जो कुछ भी भावनाएँ हैं जैसे-प्यार, गुस्सा, र्इष्र्या या खुशी वे उसके अभिभावकों द्वारा स्वीकार्य होंगी।
बचाव और सुरक्षा के अलावा एक बच्चा अपने अभिभावकों से व्यकितगत प्यार की इच्छा भी रखता है। वह इस बात से सहमत और संतुष्ट होना चाहता है कि वह खुद उसी के लिए लोगोंऋ जैसे माँ और शिक्षक से प्यार पा रहा है। बच्चे अपने अभिभावकों से एकनिष्ठ और सिथर प्यार की चाहत रखते हैं। उनकी इच्छा होती है कि किसी प्रतिकूल सिथति में भी, जैसे उनके उíंड या शरारती स्वभाव के बावजूद भी, अभिभावक उन्हें प्यार करें। अंतत: अभिभावक का (मुख्यतया माता) का समझदार होना अत्यावश्यक है। बच्चे मूलत: अपने माता-पिता से समान अनुभूति तथा बिना शर्त के प्यार चाहते हैं।
समकक्ष अभिजात समूह-
प्राथमिक विधालय के बच्चों के लिए, जो अपने समय का एक बहुत बड़ा भाग घर से बाहर अपने समकक्ष और विधालय के दोस्तों के साथ गुजारते हैं, बहुत महत्त्वपूर्ण होता है। एक बच्चे का अभिजात समूह उसके दोस्त या खेलकूद के साथी होते हैं जिससे वह पारस्परिक-क्रिया करता है। प्राथमिक विधालय के उम्र को 'गैंग-आयु के नाम से अभिहित किया जाता है, क्योंकि इस उम्र में बच्चे दोस्तों के समूह या गैंग बना कर और साथ मिलकर विविध् कायो± का कार्यान्वयन करते हैं। यह 'समूह बच्चों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। प्रथमत: प्रत्येक बच्चा किसी 'समूह का सदस्य होना चाहता है। इस स्वीÑति की प्रापित के लिए बच्चे उन गुणों को सीखने के लिए बाèय होते हैं जिससे वे सामूहिक वर्ग व्यवहार के लिए प्रेरित हों।
अभिजात या समकक्ष समूह सामान्यत: बच्चों को अत्यंत संतुलित रूप में अपने भावों की अभिव्यकित के लिए तैयार करता है। यह समूह बच्चों को सुरक्षा का भाव भी देता है जिसमें वे यह महसूस करते हैं कि अन्य सभी बच्चे भी स्वयं उनकी तरह के भावों से गुजर रहे हैं। भावात्मक स्तर पर वे सभी समान अनुभवों को महसूस करते हैं।
इस सबके अलावा अभिजात समूह अन्योन्यक्रिया के द्वारा एक बच्चे को नकारात्मक भावों के सापेक्ष सकारात्मक भावों की महत्ता भी बताता है।
विधालय-बच्चों के आनुभविक जगत में पाठशाला का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। क्रमानुसार और मनोवैज्ञानिक दोनों रूपों से विधालय की शुरूआत बच्चे के जीवन में एक विशिष्ट समयावधि की समापित है। पहली बार बच्चों को एक समूह के विभिन्न कार्यव्यवहारों के अनुकूल बनाए जाने की सायास कोशिश की जाती है, वह भी उन व्यत्तिफयों द्वारा जो उनके माता-पिता या परिजन नहंी होते।
विधालय का यह दायित्व होता है कि वह बच्चों के अंदर पनपने वाले हर नकारात्मक भावों का शमन करे और उनके बेहतर विकास के लिए समुचित वातावरण प्रदान करें। विधालय में शिक्षक एक ऐसा व्यत्तिफत्व होता है जो बच्चों के लिए एक भावात्मक साथी, दार्शनिक एवं मार्गदर्शक या एक प्रतिनिधि अभिभावक की भूमिका निभाता है। यह शिक्षक ही होता है जो बच्चों से पारस्परिक क्रिया या बातचीत के द्वारा उनकी आवश्यकताओं या जरूरतों की पूर्ति का निर्धरण कर सकता है।
विधालय बच्चें को यह महसूस करा सकता है कि वह अग्रणी है या असपफल है। बच्चों की खुशी या दु:ख दोनों उसके विधालय के अनुभवों से सीध्े तौर पर जुड़े होते हैं। विधालय बच्चे में भावात्मक विकास को विकसित या प्रोत्साहित कर सकता है या पिफर उसे बाधित कर सकता है। अत: विधालय बच्चे के जीवन का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण पक्ष है।  

3 comments:

Unknown said...

Vikasatmak samveg sidhant kisene pratipadit kiya hai

Unknown said...

Jeen pyaje ne ...
Ydi galat ho to sahi ans. Btaiyega plzz

Roshan Singh said...

बहुत ही उम्दा जानकारी संवेग का अर्थ परिभाषा के लिए।